History of tipu sultan यहाँ पढ़िए टीपू सुल्तान के शासनकाल की अनौखी कहानी

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इतिहास के पन्नों में टीपू सुल्तान के नाम पर भले ही विवाद चल रहा हो लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इतिहास के पन्नों से टीपू सुल्तान का नाम मिटा पाना असम्भव है। जब मैसूर की गद्दी पर हैदर अली का शासन था, तब सन 1779  में टीपू सुल्तान के संरक्षण में आए एक बंदरगाह पर अंग्रेजों ने अवैध रूप से अपना कब्जा कर लिया। जिसके कारण टीपू सुल्तान के पिता ने इसका बदला लेने के लिए वर्ष 1780 में अंग्रेजो के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया, जिसे “द्वितीय एंग्लो मैसूर युद्ध” के नाम से जाना जाता है। इस युद्ध में हैदर अली की जीत हुई थी। अगले 2 सालों में हैदर अली को कैंसर की गंभीर बीमारी हो गई, जिसके कारण 1782 में उनकी मृत्यु हो गई थी।

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पिता के इस प्रकार आकस्मिक निधन के कारण टीपू सुल्तान ने हिम्मत करके मैसूर राज्य को दुश्मनों से बचाए रखने के लिए स्वयं राजगद्दी संभाली और मैसूर शासक बन गए। सत्ता में आने के बाद टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों की जांच करवाने के लिए कई मुग़ल और मराठों के साथ गठबंधन कर लिया और अंग्रेजो के खिलाफ रणनीति पर काम करने लगे। अंत में अंग्रेजों और टीपू सुल्तान के बीच 1784 में “द्वितीय एंग्लो मैसूर युद्ध” समाप्त होने के बाद ‘मंगलौर की संधि’ पर हस्ताक्षर किया जो पूरी तरह से सफल रहा।

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अपने जीवन काल में दूसरे बड़े युद्ध के बाद टीपू सुल्तान ने अब अपने क्षेत्र में सुधार काम की महत्वाकांक्षा रखी और विभिन्न प्रकार की परियोजनाओं के साथ सैन्य बल, पुल, मकान, बंदरगाह और युद्ध में उपयोग करने के लिए मैसूरियन रॉकेट का निर्माण करवाया, जिसे वे अंग्रेजो के खिलाफ युद्ध में इस्तेमाल करने के लिए प्रयोग करते थे। लेकिन टीपू सुल्तान से इस बार उनकी बढ़ती महत्वाकांक्षाओं के कारण एक भूल हो गई। अंग्रेजों से की गई मंगलौर संधि में यह प्रस्ताव भी शामिल था, की टीपू सुल्तान और उनके सहयोगी कभी भी त्रवंकोर राज्य पर आक्रमण नहीं करेंगे। त्रवंकोर राज्य उस समय में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का एक उपनिवेश था।

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वर्ष 1789 के दरमियान टीपू सुल्तान ने ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ किए गए संधि का उल्लंघन करके त्रवंकोर पर पहला हमला कर दिया। इसके विरोध में अंग्रेजों ने मजबूत सैन्य बल की स्थापना के लिए हैदराबाद के निजामों और कई मराठों के साथ गठबंधन कर लिया और अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाकर वर्ष 1790 में टीपू सुल्तान पर हमला कर दिया। परिणाम स्वरूप टीपू सुल्तान को अपने अन्य अधिकृत राज्यों में सुरक्षा और भी बढ़ानी पड़ी। टीपू सुल्तान और अंग्रेजों के बीच छिड़ी इस युद्ध को “तृतीय एंग्लो मैसूर युद्ध” के नाम से जाना जाता है, जिसमें टीपू सुल्तान की हार हुई थी। इस युद्ध में हार के बाद भी टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों से की गई दुश्मनी को समाप्त नहीं किया और अंग्रेजों के विरुद्ध एक के बाद एक चाल चलते गए। इसके कारण जब “चौथा एंग्लो मैसूर युद्ध” हुआ तो इसमें टीपू सुल्तान को अपने साम्राज्य के साथ साथ अपने प्राण से भी हाथ धोने पड़ गए।

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